दर्शन, विज्ञान और व्यवहार के सामञ्जस्य से परिभाषित धर्म-
दर्शन, विज्ञान और व्यवहार तीनों में सामञ्जस्य साध कर धर्म को परिभाषित और ख्यापित करने की आवश्यकता है। पूरा विश्व इस ढंग से धर्म के प्रति, सनातन सिद्धान्त के प्रति आस्थान्वित हुए बिना नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए - कोई व्यक्ति प्यास लगने पर पानी क्यों पीना चाहता है? प्यासे व्यक्ति की पानी में प्रीति प्रवृत्ति का नियामक कौन है? धर्म। जल अपने गुण-धर्म का त्याग नहीं करेगा तो जल पीने पर प्यास की निवृत्ति होगी ही। देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण में पुष्टि की प्राप्ति होगी, तृप्ति की प्राप्ति होगी। सर्दी में ठिठुरता हुआ व्यक्ति अग्नि को क्यों तापना चाहता है? अग्नि तत्व अपने गुण-धर्म का त्याग नहीं करेगा। भूखे व्यक्ति की भोजन में प्रीति प्रवृत्ति क्यों होती है? भोज्य पदार्थ या अन्न अपने गुण-धर्म का त्याग नहीं करेगा। ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण व्यवहारक्षम क्यों हैं? इस आस्था के बल पर कि ये अपने गुण-धर्म का त्याग नहीं करते। मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार हमारे जीवन में उपकारक क्यों सिद्ध हैं क्योंकि ये अपने गुण-धर्म का त्याग नहीं करते। सारा व्यवहार तो धर्म के प्रति आस्थान्वित हो करके ही होता है। धर्म से विहीन व्यक्ति तो एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। प्राण अपने धर्म का त्याग कर दे तो जीवन कहाँ रहेगा? इस ढंग से धर्म के व्याख्यान की आवश्यकता है। इस ढंग से अगर धर्म का निरूपण किया जाए कोई भी विश्व में धर्म विरोधी हो ही नहीं सकता। पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश ये सब अपनी उपयोगिता किसके बल पर सिद्ध किए हुए हैं? धर्म के बल पर। पृथ्वी अगर गंध को छोड़ दे, जल अगर रस को छोड़ दें, अग्नि अगर दाह प्रकाश को छोड़ दे, पवन अगर जीवनी शक्ति को छोड़ दें, आकाश यदि शब्द गुण को छोड़ दे तो जीवन का क्या होगा? इस ढंग से यदि धर्म की व्याख्या करेंगे, धर्म को परिभाषित करेंगे कौन माई का लाल होगा जो धर्म का पक्षधर नहीं होगा? फिर धारणात् धर्म.. अमरकोश के अनुसार। मत्स्य पुराण के अनुसार धर्म की निरुक्ति यह है - जो धारक होता है वह धर्म है। जो धारक होता है वह उद्धारक अवश्य होता है। जो धारक और उद्धारक हो उसका नाम धर्म है। पार्थिव प्रपञ्च को धारण करने वाली पृथ्वी है, पृथ्वी को धारण करने वाला सन्निकट निर्विशेष जल है, जल को धारण करने वाला सन्निकट निर्विशेष अग्नि है, अग्नि को धारण करने वाला सन्निकट निर्विशेष पवन या वायु है, वायु को धारण करने वाला सन्निकट निर्विशेष आकाश है, आकाश को धारण करने वाला सन्निकट निर्विशेष अव्यक्त है, अव्यक्त को सत्ता, स्फूर्ति देने में समर्थ आत्मा या परमात्मा है। कठोपनिषद् में आत्मा या परमात्मा का नाम धर्म है।
इसका अर्थ क्या हुआ? सिद्ध कोटि का जो धर्म है उसका तो खण्डन कोई कर नहीं सकता। अब रह गई बात साध्य कोटि के धर्म की। यज्ञ, दान, तप, व्रत ये साध्य कोटि के धर्म हैं। ' यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति ' - बृहदारण्यक उपनिषद्। यज्ञ करना चाहेंगे तो मुट्ठी खोलने पड़ेगी या नहीं? सुपात्र को दान देना चाहेंगे तो मुट्ठी खोलनी पड़ेगी। व्रत करना चाहेंगे तो भोग का त्याग करना ही पड़ेगा, तप करना चाहेंगे तो सुख का त्याग करना ही पड़ेगा। यज्ञ, दान, तप, व्रत ये साध्य कोटि के, अनुष्ठेय कोटि के धर्म हैं। इनके आलम्बन से जीवन में त्याग का अद्भुत बल और वेग उत्पन्न होता है। अपना जीवन अपने लिए और अन्यों के लिए हितप्रद होता है। कौन धर्म का खण्डन कर सकता है?
धर्म को जिस ढंग से परिभाषित और व्याख्यान की आवश्यकता है, उसी ढंग से परिभाषा न करने के कारण, व्याख्या न करने के कारण कोई विरोधी होता है।
फिर हम पूछते हैं पृथ्वी की रचना जल से ही क्यों हुई? जल की उत्पत्ति अग्नि से ही क्यों हुई? अग्नि की उत्पत्ति वायु से ही क्यों हुई? वायु की उत्पत्ति आकाश से ही क्यों हुई? आकाश की उत्पत्ति अव्यक्त से ही क्यों हुई? अव्यक्त की उत्पत्ति आत्मा का परमात्मा से ही क्यों हुई? इसका उत्तर तो आधुनिक वैज्ञानिकों के पास नहीं है। अंत में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, संहृति, जगत् का निग्रह, अनुग्रह इन सब को अगर हम जानना चाहें तो सनातन सिद्धान्त के प्रति अस्थानवित होना ही पड़ेगा। अभी आधुनिक विज्ञान को तो पृथ्वी का भी ठीक से ज्ञान नहीं है। सृष्टि की संरचना का समग्र विज्ञान हमारे पुराणों में है, नासदीय सूक्तम् इत्यादि में है। इसका कौन खण्डन करेगा?
रही वर्णाश्रम धर्म की बात तो एक ही वाक्य पर्याप्त है, पूरे विश्व का मुँह अभी बंद है। केवल हम अर्थ की दृष्टि से बात करते हैं... पूरे विश्व में केवल अर्थ… अर्थ... अर्थ...। पिता-पुत्र का सम्बन्ध भी अब केवल अर्थ तक सीमित रह गया। पति-पत्नी का सम्बन्ध भी अब केवल अर्थ तक लेकिन हम एक प्रश्न उठाते हैं… जितने ये भौतिकवादी हैं… किसी के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है - यदि जन्म से जीविका सुरक्षित नहीं है तो आर्थिक विपन्नता, अनावश्यक विषमता अवश्य सम्भावित है। जन्म से जीविका सुरक्षित है और दुर्व्यसन मुक्त जीवन है तो आर्थिक विपन्नता, अनावश्यक विषमता सम्भव ही नहीं है। अर्थ की दृष्टि से भी वर्णाश्रम धर्म का कोई खण्डन नहीं कर सकता।
काम की दृष्टि से… एक हज़ार विश्व सुंदरी हों लेकिन सनातन धर्मी होगा तो विचार करेगा कुल, गोत्र, वय, वर्ण, आश्रम। किसी की बहू-बेटी की शील पर किसी की कुदृष्टि पड़ ही नहीं सकती है। किस दृष्टि से सनातन सिद्धान्त को उपेक्षित किया जा सकता है? किसी दृष्टि से नहीं। आवश्यकता है सनातन सिद्धान्त को विश्वस्तर पर दर्शन, विज्ञान और व्यवहार में सामञ्जस्य साधकर ख्यापित करने की। उसकी कमी की पूर्ति हम लोग कर रहे हैं भगवत्कृपा से, गुरुओं की कृपा से।
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