शंकराचार्य जी का उत्तर - हर दिन परिवार में जितने सदस्य हों उनको एक साथ 24 घण्टे में एक बार बैठना चाहिए। कम से कम हनुमान चालीसा का पाठ ही मिलकर एक बार कर लें। पाँच-सात मिनट समय उसमें लगता है। फिर एक-दूसरे को कुशल पूछें। कोई गाँठ पल रही हो एक दूसरे के प्रति तो उसे प्रकट करें। अपनी भूल को बेखटके स्वीकार करके उसे दूर करने का प्रयास करें। आपके प्रति या किसी के प्रति यदि परिवार में कोई भ्रम पल रहा हो तो भ्रम को दूर करने का प्रयास करें। भूल को स्वीकार करके दूर करने का प्रयास करें। भ्रम का निवारण करें। साथ ही साथ तुलसी भी रखें, घर का वातावरण ऐसा हो कि बच्चे बचपन से आस्तिक हो सकें। गीताप्रेस के जितने विशेषांक हैं वो घर में रखें। पञ्चदेव को लेकर विशेष रूप से पाँच विशेषांक हैं। वो हिन्दी में हैं। कम से कम 15-20 मिनट एक व्यक्ति पढ़े, बाकी सुनें और परिवार के हित के लिए मिलकर के विचार-विमर्श करें। कुलदेवी-कुलदेवता का विलोप न हो, कुलगुरु का विलोप न हो इसका ध्यान रखें। सबसे बड़ी बात भोजन मैं विकृति न आवे। जो अभक्ष्य पदार्थ हैं अण्डे इत्यादि, इससे दूर रहें। कोका-कोला, पेप्सी इन सबके शिकार न बनें। सात्त्विक भोजन करें। और फैशन के नाम पर पाश्चात्य वेशभूषा को बिल्कुल स्थान न दें। सलवार आदि न पहनें, साड़ी पहनें। यह बहुत आवश्यक है। वेश से और भाषा से परहेज़ करके धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। अंग्रेज़ी कट बाल बिल्कुल न रखें माताएँ। और बच्चों को बचपन से शिखा (चोटी) रखने का महत्व बतायें।
मैं उदाहरण देता हूँ - बड़ी बहन जी ने मुझको बताया बचपन में, कोई अच्छा पदार्थ आ जाए, मिठाई इत्यादि मिल जाए अगर आपस में बाँट कर पाओगे तो राजा बनोगे; अकेले चुपके से खा लोगे, दूसरों को अँगूठा दिखा दोगे तो, दूसरों की दृष्टि से बचकर अकेले खा लोगे तो अधोगति होगी। अब उसका प्रभाव यह पड़ा मुझ पर, छोटी आयु थी, मुझे कोई अमृत दे दे तो छिपकर पा नहीं सकता मैं। बिना बाँटे नहीं पा सकता। मुझे मिले या न मिले दूसरे को जरूर दूँगा। विष मिल जाये तो अकेले पी लूँगा, मिला भी है दो बार, अकेले पिया है। किसी को विष में शामिल नहीं किया।
तो छोटी आयु की जो शिक्षा होती है वह घर कर जाती है। छोटी आयु में जो संस्कार दूषित हो जाते हैं, आगे बहुत प्रयास करने पर भी उनका निवारण करना कठिन होता है। तो हमने संकेत किया कि जितना तपोमय जीवन माता-पिता का होगा, सन्तान पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा।
और अंत में, जंग आदि कालुष्य दोषों से विनिर्मुक्त लोहा को गुरुत्वयुक्त चुम्बक का सान्निध्य सुलभ हो जाए तो लोहा सर्वतोभावन चुम्बक की ओर आकृष्ट होता है। तो माता-पिता जो सम्भावित हैं, जिनको माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त है उनकी योग्यता के अनुसार वो जीव को कर्षित करके लाला या लाली बना पाते हैं। बहुत ही दिव्य जीवन हो तो साक्षात् जगदीश्वर को लाला, जगदीश्वरी को लाली बना सकते हैं। सनातन धर्म में गृहस्थों को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वे चाहें तो जगदीश्वर को बेटा, जगदीश्वरी को बेटी के रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं। उतनी पहुँच न हो, तो कम से कम झांसी की रानी की तरह है वीरांगना, मीरा की तरह भगवद्भक्ता, रोहिणी की.. वो तो भगवती थीं। इसी तरह हमने संकेत किया - महाराणा प्रताप, शिवाजी के समान, ध्रुव के समान, प्रह्लाद के समान, योगभ्रष्ट मनीषियों के समान संतान को जन्म देने का प्रयास करें। जितना माता-पिता जीवन को कसते हैं, दिव्य बनाते हैं, उतना ही बालकों पर असर पड़ता है। बट्टे खाते में एक बालक अपने आप सन्मार्ग पर चल दे, बहुत कठिन काम है। सबसे बड़ा तप है कि सन्तान परम्परा स्वस्थ रहे, सुसंस्कृत रहे।
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