शंकराचार्य जी का उत्तर -
मर्यादा का अतिक्रमण करके विषयोपभोग का नाम 'काम का उद्रेक' है।
दूसरे की असहिष्णुता के कारण उसे मिटा देने, मिट्टी में मिला देने की भावना का नाम 'क्रोध' है।
जो वस्तु दूसरों के अधिकार में है उसे ले लेने की भावना का नाम 'लोभ' है।
जब जीवन में रजोगुण का उद्रेक होता है… काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः (भगवद्गीता 3.37), तब काम, क्रोध, लोभ प्रकट होते हैं और श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता में नरक के खुले द्वार काम, क्रोध और लोभ को बताया गया है। जो भगवान् को कमनीय मानते हैं, वरणीय मानते हैं, भजनीय मानते हैं, रमणीय मानते हैं तो काम का अक्लिष्ट उपयोग हो जाता है।
इसी प्रकार से क्रोध पर जब क्रोध आने लगता है तो याज्ञवल्कय उपनिषद् के अनुसार क्रोध के विगलित होने का मार्ग प्रशस्त होता है, जलने का मार्ग प्रशस्त होता है। सबको आत्मीय समझने, भगवान् के अंश समझने की भावना दृढ़ होती है तो दूसरे की वस्तु अपहरण या चुराने की भावना या अपने जीवन में आवश्यकता से अधिक पदार्थों के सञ्चय की भावना, जिसको लोभ कहते हैं उसकी दासता से व्यक्ति मुक्त होता है।
सबसे ऊँची बात यह है -
क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
काम कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
लोभ कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
काम हो, क्रोध हो, लोभ हो, जब हम किसी को अपने से भिन्न मानते हैं, द्वैत बुद्धि को पालते हैं तब काम, क्रोध, लोभ का उद्रेक होता है। जब तक द्वैत बुद्धि नहीं होगी तब तक काम, क्रोध, लोभ का उदय हो ही नहीं सकता है। और काम, क्रोध, लोभ के मूल में द्वैत, द्वैत के मूल में अज्ञान है।
एक बहुत ऊँचा विचार है - गाढ़ी नींद में अहंकार सो जाता है, अहंकार सो जाता है तो न उस समय काम, न क्रोध, न लोभ, न मोह, न शोक, न सर्दी, न गर्मी, न भूख, न प्यास, न मृत्यु का भय और न किसी प्रकार का ताप प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है कि सारा खेल, जितना उपद्रव है वह अहंकार के कारण है। गाढ़ी नींद में अहम् के सो जाने पर ऽहमि च प्रसुप्ते… किसी प्रकार के मनोविकार का उद्रेक नहीं होता, किसी प्रकार की वेदना की प्राप्ति नहीं होती बल्कि आनन्द ही मिलता है। गाढ़ी नींद के इस रहस्य को समझने पर व्यक्ति विषय की दासता से मुक्त होता है। विषय की दासता से मुक्त होने पर काम, क्रोध, लोभ, यह जो मनोविकार हैं इन पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। एकाएक काम, क्रोध, लोभ पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती है। मर्यादा की सीमा इसीलिए अपने यहाँ है। मर्यादा की सीमा में काम हो...
और बहुत अच्छा रामचरितमानस में कहा गया -
निर्बान दायक क्रोध जा कर… भगवान् शिव क्रोध करते हैं, राम जी भी क्रोध करते हैं…. भगवान् जिस पर क्रोध करते हैं उसको शान्ति मिलती है। निर्बान, आनन्द मिलता है। तो यहाँ एक रहस्य बताया गया। पूज्य स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वती जी महाभाग कहा करते थे - आग का और क्रोध का स्वभाव एक जैसा होता है। आग अपने अभिव्यञ्जक संस्थान (तीली या काष्ठ) को जलाती हुई प्रकट होती है। अग्नि के प्राकट्य का यही सिद्धान्त है। केकड़ी के गर्भ में जो बच्चा होता है केकड़ी के पेट को फाड़ कर ही जन्म लेता है, ऐसी कहावत है। ऐसे ही क्रोध जिस आश्रय में उत्पन्न होता है उसको दग्ध करता हुआ ही उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं। विषय पर क्रोध कारगर हो या ना हो आश्रय पर कारगर हुए बिना तो उसकी अभिव्यक्ति ही नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह है कि क्रोध तो अपने आश्रय… इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते (भगवद्गीता 3.40)..
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् (भगवद्गीता 2.55)... काम, क्रोध, लोभ, मोह इनका आश्रय इनका अभिव्यञ्जक संस्थान इन्द्रिय, मन और बुद्धि है। तो क्रोध जिस आश्रय में उत्पन्न होता है उसी को पहले दग्ध करता है। क्रोधी का हृदय जलता है क्रोध रूपी अग्नि में। मीठा विष है काम और लोभ, कड़वा विष है क्रोध। दोनों ही विष हैं। तो मर्यादा की सीमा में काम, क्रोध और लोभ।
और कमनीय भगवान् हैं, वरणीय भगवान् हैं, इस तथ्य का जब हृदय में ज्ञान होने लगता है तब काम शिथिल होने लगता है। कारण क्या है? संसार साक्षात् वरण करने योग्य नहीं है। संसार में जो कुछ चमत्कृति है वह परमात्मा की विद्यमानता के कारण है। सोने की अंगूठी आदि में जो कुछ चमत्कृति है वह सोने की विद्यमानता के कारण है। भगवान् की विद्यमानता के कारण ही किसी वस्तु के प्रति चित्त आकृष्ट होता है। इस तथ्य को समझने पर और सात्त्विक आहार आदि करने पर, सत्सङ्ग करने पर काम, क्रोध, लोभ पर नियन्त्रण और विजय प्राप्त करना सम्भव है।
आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।
ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।
(श्रीमद्भागवत 11.13.4) -
दस वस्तुएँ अगर सात्त्विक हों तो सत्त्वगुण का उदय होता है और सात्त्विक अन्तःकरण में काम, क्रोध, लोभ उत्पन्न नहीं होते। या तो तमोगुण छा जाये गाढ़ी नींद में तब काम, क्रोध, लोभ का वेग नहीं आता। या सत्त्वगुण छा जाये तो शान्ति-दान्ति होती है। रजोगुण की भूमिका में ही काम, क्रोध, लोभ पलते हैं। न तो निद्रा में तमोगुण की प्रगल्भता में, न तो सत्त्वगुण की प्रगल्भता में। आहार-विहार यह सब सात्त्विक होने पर, सत्सङ्ग-स्वाध्याय का बल होने पर इन मनोविकारों पर विजय सम्भव है।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। (भगवद्गीता 5.23).
भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय के अनुसार, अन्तिम सांस तक सावधान रहने की आवश्यकता है।
एक महात्मा थे। किसी चुलबुले व्यक्ति ने जा कर पूछ दिया - महाराज! आपने काम, क्रोध, लोभ पर विजय प्राप्त कर ली क्या?
उन्होंने कहा - समय आने पर उत्तर दूँगा। वे सच बोलते थे। दैवयोग से उनका शरीर छूट गया, शिष्य लोग उनको समाधि स्थल शमशान की ओर ले जा रहे थे।
उस व्यक्ति को पता चला जिसने सन्त जी से पूछा था- दौड़ता हुआ आया पागल के समान। महाराज! आप झूठ नहीं बोलते थे, मेरे प्रश्न का उत्तर दिये बिना आप चल बसे। मेरे प्रश्न का उत्तर तो दीजिये।
सबने कहा - यह पागल है! महाराज का शरीर छूट गया। अब शव को ले जा रहे हैं समाधि स्थल, भू-समाधि देनी है, या जलाना है।
उसने कहा - नहीं! मैं पागल नहीं हूँ। तुम लोग पागल हो। महाराज सत्य बोलते थे।
तो महाराज एक क्षण के लिए जीवित हो गये। उन्होंने कहा कि 'हाँ! अब मैं कह सकता हूँ कि काम, क्रोध, लोभ पर भगवान् की कृपा से विजय प्राप्त हुई।
उसने कहा - तो महाराज! यह उत्तर पहले देते।
महाराज ने कहा - अन्तिम क्षण तक सावधान रहने की आवश्यकता है। अब तो आयु समाप्त हो गई।
इसलिए शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्… अन्तिम सांस तक जागरूक रहने की आवश्यकता है।