किसी श्रोता का प्रश्न - धर्म के मार्ग पर चलते हुए नित्यकर्म, सन्ध्या-साधना करते हुए, योग-ध्यान करते हुए और सत्सङ्ग करते हुए मन स्थिर रहे। लेकिन यह तो चञ्चल है। इसे रोकने का क्या प्रयास करें? इस पर आप प्रकाश डालें।
शंकराचार्य जी का उत्तर - पारद (पारा) जानते हैं? वह स्वभाव से चञ्चल होता है। मन्त्रमहौषधि के द्वारा उसे बाँधते हैं, शिवलिङ्ग आदि का रूप प्रदान करते हैं। Mercury जिसको कहते हैं, पारे का स्वभाव चञ्चल है। मन का स्वभाव भी चञ्चल है। स्वभाव को लेकर प्रश्नचिह्न उपस्थापित नहीं किया जाता। मन तो स्वभाव से चञ्चल है। लेकिन, जैसे मन्त्रमहौषधि का आलम्बन लेकर या महौषधि का आलम्बन लेकर पारे को बाँधा जाता है इसी प्रकार युक्तियों के द्वारा, आहार-विहार उचित हो तब मन समाहित होता है। इसके लिए अथक प्रयास और विवेकपूर्ण प्रयास और महापुरुषों के आश्रय की आवश्यकता है। बिना उचित उपाय के मन समाहित नहीं होता।
दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः परो हि योगो मनसः समाधिः।। (श्रीमद्भागवत 11.23.45)
( दान, स्वधर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत - इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान् में लग जाये। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। )
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध के 23वें अध्याय में बताया गया दान, स्वधर्म, यम, नियम, सन्ध्यातर्पण आदि का फल क्या है - मन को शुद्ध और समाहित करना। 'सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः परो हि योगो मनसः समाधिः' मन को समाहित करना सबसे बड़ी पहेली है। सम्भव है। इसके लिए उचित प्रयास करें। एक क्षण में ही मन स्थिर नहीं होता और गाढ़ी नींद में तो मन कहाँ चञ्चल होता है? सो जाता है। और समाधि में मन कहाँ चञ्चल होता है? सात्त्विक आहार-विहार करने पर मन समाहित रहता है। तो सन्ध्या कर रहे, तर्पण कर रहे यह भी ठीक है। अपने अधिकार की सीमा में मन्त्र जप करते हों तो यह भी ठीक है लेकिन सत्सङ्ग का आलम्बन, एक महापुरुष के मार्गदर्शन के अनुसार जीवनयापन भी अपेक्षित है।