किसी श्रोता का प्रश्न - हिन्दू अपने धर्म से विमुख क्यों होते जा रहे हैं? हमको पता है जो बच्चे धर्म से विमुख हो रहे हैं उनके मन में शान्ति कहीं नहीं है। हमारे दादाजी लोग जो थे उनमें धर्म की बहुत ज्यादा मर्यादा थी, बहुत पूजा करते थे, शान्त थे पूरे। हमारी पीढ़ी आई, हमने कुछ कम कर दिया, कुछ अशान्ति हमारे मन में भी है। पर हमारे बच्चे जो आ रहे हैं वो तो बिल्कुल ही विमुख होते जा रहे हैं, तो उनके बारे में कुछ suggest करें।
शंकराचार्य जी का उत्तर - इसमें राजनेताओं की भूमिका बहुत ऊँची है और अंग्रेज़ों की कूटनीति है कि स्वतन्त्र भारत में राजनितिक दलों के माध्यम से हिन्दुओं के अस्तित्व और आदर्श को विकृत, दूषित और विलुप्त कर दो। विषयलोलुपता और बहिर्मुखता की पराकाष्ठा को विकास के रूप में परिभाषित किया गया है। बच्चों को, युवकों को दिशाहीन करने के लिए भरपूर प्रयास किया जा रहा है। धर्म और ईश्वर को विकास में परिपंथी या अवरोधक माना जा रहा है। भारत में शिक्षा की प्रणाली अपनी नहीं है। उसमें धर्म, नीति, अध्यात्म का कोई सन्निवेश नहीं है। रक्षा की प्रणाली भी भारत को अपनी सुलभ नहीं है। कृषि, गोरक्ष्य, वाणिज्य के प्रकल्प भी विदेशियों की ओर से चरितार्थ हैं। सेवा के प्रकल्प भी। सम्विधान की आधारशिला भी सनातन सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। बबूल का पेड़ बो कर के आम का, अमरूद का, अंगूर का फल जैसे नहीं प्राप्त किया जा सकता वैसे ही जिस ढंग से भारत को विकास के नाम पर ढकेला जा रहा है उस ढंग से आगे जो पीढ़ी है या वर्तमान पीढ़ी भी, उसकी दिशाहीनता सुनिश्चित है। प्रायः जो आस्तिक कहे जाते हैं या धार्मिक कहे जाते हैं या भगवान् के भक्त कहे जाते हैं वे अपनी आस्तिकता, धार्मिकता, भक्ति अपने साथ लेकर ही शरीर छोड़ रहे हैं। उनमें क्षमता नहीं है कि बेटे, पोते तक अध्यात्म, धर्म और भगवद्भक्ति को पहुँचा सकें। असली बात है कि हृदय से धर्म के प्रति आस्था ही नहीं है। और जो-जो महानगर बन गये वहाँ के रहनेवाले तो बहुत नास्तिक हो जाते हैं।
'भिखमपुरा' एक स्थान है ओडिशा और छत्तीसगढ़ की सीमा पर, मुख्य मार्ग हाईवे से 11 किलोमीटर दूर, कई साल पहले वहाँ हम गये थे। उस गाँव की कुल संख्या 926 थी, व्यक्तियों की उपस्थिति 50,000। तो वे उस गाँव के तो नहीं थे न, बाहर से बहुत सारे आ गए थे। उस गाँव की तो कुल जनसंख्या ही 926 थी।
और शंकराचार्य आ जाओ, परमात्मा आ जाओ, ये जो विकसित कॉलोनियाँ हैं, इनमें नास्तिकता इतने घर है, घर छोड़ने के लिए व्यक्ति तैयार नहीं। तो इन हिन्दुओं को कौन बचा सकता है? विकास के नाम पर मरने, उजड़ने के लिए तैयार हैं…
ढाई-ढाई हज़ार किलोमीटर दूर हम जम्मू-कश्मीर की ओर जाते हैं, एक किलोमीटर पर एक श्रोता भी घर छोड़ते नहीं। तो इन हिन्दुओं के तो रक्षक कोई हो सके, कहना कठिन है। क्योंकि महानगरों के माध्यम से तो नास्तिकता की बाढ़ आती है। सारी विकृतियों के मूल में राजनेताओं का विकृत मस्तिष्क काम कर रहा है। उनके सञ्चालक विदेशी तन्त्र हैं।
और आपको तो सुनकर आश्चर्य ही होगा कि हमारा मस्तिष्क ही खरीद लिया गया है। हिन्दुओं के पास अपना मस्तिष्क कहाँ से है? है ही नहीं। जो शिक्षा पद्धति होती है उसी के अनुसार मस्तिष्क बनता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अनुसार तो व्यक्ति 2% भी सनातनी नहीं बन सकता। तो कहने को हिन्दू हैं... हमारा तो मस्तिष्क ही खरीद लिया गया। वर्तमान शिक्षा पद्धति के आधार पर जो मस्तिष्क बनता है, तो आस्तिक कहते रहिये अपने को लेकिन 2% भी उसमें आस्तिकता नहीं होती। तो इन सब कारणों से…।
जबतक शासनतन्त्र सुव्यवस्थित नहीं होगा तबतक देश में अपेक्षित परिवर्तन कठिन है। और मुख्य बात है कि सनातनियों के अस्तित्व और आदर्श को चारों ओर से विलुप्त करने के लिए षड्यंत्र हैं और नित्य ही क्रियान्वित होते हैं। और राजनीतिक दलों के माध्यम से ही वो क्रियान्वित होते हैं। अब तो धीरे-धीरे सुरसा के समान… सुरसा ने अपना मुँह फैलाया, उसका प्रयास था कि हनुमान जी को निगल जाये, सुरसा के समान धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में भी राजनीति का प्रवेश हो गया है। दिशाहीन उन्मत्ततापूर्ण राजनीति का प्रवेश। ये राजनेता अब शिक्षा, रक्षा, संस्कृति, सेवा, धर्म और मोक्ष के संस्थान जो मठ-मन्दिर हैं, उनपर भी कब्जा कर चुके। ऐसा बानक बना दिया गया है कि इन संस्थानों के ट्रस्टी, सञ्चालक भी राजनेता ही होते हैं। और हमारे जितने आध्यात्मिक संस्थान हैं, वे सब के सब प्रान्तीय सरकार के अधीन हो गए हैं। सन्तों पर भी शिकंजा राजनीतिक दलों ने कसा है। अपनी अपनी पार्टी के व्यक्ति को सन्त बनाकर घुमाते हैं, महंत बनाकर घुमाते हैं। चारों कुम्भ पर भी राजनीतिक दलों ने छद्म नाम रखकर सन्तों को अपने अधीन कर लिया है। यह विदेशी षड्यंत्र है। इसको समझने और इससे बचने के लिए स्वस्थ कदम उठाने की आवश्यकता है।
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