IIM अहमदाबाद प्रवचन , दिसंबर 2016

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IIM अहमदाबाद में पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य पुरी पीठाधीश्वर स्वामी श्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाराज का प्रवचन  :- 

प्रवचन की वीडियो - https://youtu.be/OlKhviyNAcQ?si=g-f-CGIUo9v5dbBJ

IIM Pravachan


IIM Ahemadabad में पूज्य जगद्गुरु शङ्कराचार्य पुरी पीठाधीश्वर स्वामी श्री निश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज का प्रवचन :- 

सज्जनों, सृष्टिकी संरचना सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर करते हैं। उनकी शक्ति त्रिगुणमयी माया है। पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, दिक्, काल और स्थावर जङ्गम प्राणी सब परमात्माकी अभिव्यक्ति मान्य है। वेदों का उद्घोष है कि वेदसम्मत परमात्मा जगत् बनाता ही नहीं है अपितु स्वयं जगत् बनता भी है। आधुनिक भाषामें कहें तो इस सृष्टिका maker और matter दोनों ही परमात्मा सिद्ध होता है। 

 

सृष्टिकी संरचनाका प्रयोजन भी हमारे शास्त्रों में दिया गया है। जैसे दिन के बाद रात्रि होती है, रात्रि के बाद दिन होता है, यह क्रम चलता रहता है। ठीक वैसे ही सृष्टिके बाद प्रलय और प्रलयके बाद सृष्टिका क्रम चलता रहता है। प्रलयके पूर्व क्षण तक जो जीव कृतार्थ नहीं होते, तृप्त नहीं होते, हृदयमें वासनाको संजोय रखते हैं, उन्हें कृतार्थताका पुनः अवसर प्रदान करनेकी भावनासे महासर्गके प्रारम्भमें भगवान् आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वीसे मण्डित सृष्टिकी संरचना करते हैं और जीवोंको देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरणसे युक्त जीवन प्रदान करते हैं।

 

उसके पीछे प्रयोजन क्या है? सृष्टिकी संरचनाका प्रयोजन क्या है इस पर विचार करनेकी आवश्यकता है। श्रीमद्भागवत के 10.87.2 में सृष्टिकी संरचनाके प्रयोजन पर प्रकाश डाला गया है :- 

 

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानांसृजत् प्रभुः।

मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च।।

 

अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं। इनकी उपलब्धि हो सके, इसी भावनासे परमात्माने सृष्टि की संरचनाकी है और जीवोंको देह, इन्द्रिय, प्राण, अंतःकरणसे युक्त जीवन प्रदान किया है। 

 

हमको-आपको पाँच-सात घण्टे तक प्रायः नित्य ही गाढ़ी नींद सुलभ होती है। यदि गाढ़ी नींद सुलभ न हो तो सब प्रकारकी व्यवस्था सुलभ होने पर भी व्यक्ति विक्षिप्त या पागल हुए बिना न रहे। गाढ़ी नींद में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास किसी द्वंद्व की पहुँच हम-आप तक नहीं होती। काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक आदि मनोविकारोंकी गति हम तक नहीं होती। मृत्युका भय हमें प्राप्त नहीं होता। दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापोंमें किसी तापकी प्राप्ति या व्याप्ति हमको नहीं होती। इतना सब कुछ होने पर भी गाढ़ी नींद पुरुषार्थ भूमि नहीं है। न तो अर्थोपार्जन गाढ़ी नींदमें सम्भव है, न धर्मानुष्ठान गाढ़ी नींदमें सम्भव है, न विषयोपभोग गाढ़ी नींदमें सम्भव है और न कृतार्थता या मोक्ष ही गाढ़ी नींदमें सम्भव है।

 

इसी प्रकार महाप्रलयकी दशामें जीव भगवान् से एकीभूत होकर शेष रहता है, तथापि महाप्रलयकी दशा में वह कृतार्थ नहीं हो सकता। अतः भगवान् अकृतार्थ जीवोंको कृतार्थ होनेका अवसर प्रदान करनेकी भावनासे पुनः सृष्टिकी संरचना करते हैं। 

 

प्रकृतिके द्वारसे हमको आकाश सुलभ है, वायु सुलभ है, तेज सुलभ है, जल सुलभ है, पृथ्वी सुलभ है। और पृथ्वीके द्वारसे हमको पर्वत, वन, खनिज पदार्थ ये सब सुलभ हैं। अपने आप में व्यवस्थाकी आधारशिला प्रकृति प्रदत्त पञ्च भूतोंको मान सकते हैं। इनके बिना कोई व्यवस्था सम्भव ही नहीं हो सकती। जैसे ये भवन बना है, इस भवनको बनानेके लिए जिन सामग्रियोंकी आवश्यकता थी वे सब सामग्रियां हमें प्रकृतिसे प्राप्त हुईं। तो व्यवस्थाकी आधारशिला क्या है इस पर विचार करनेकी आवश्यकता है।

प्रकृतिके द्वारा जो प्राप्त सामग्री है उसका हम संरक्षण उचित ढंगसे कर सकें, वितरण योग्य सामग्री का उचित ढंगसे वितरण कर सकें और उचित ढंग से उपभोग कर सकें तब व्यवस्था की पूर्ति होती है।

इसी प्रकार मानव अपनी बुद्धि के द्वारा अनुकूल पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, दिक्, कालके योगसे अन्न इत्यादिका उत्पादन करता है। मनुष्योंके द्वारा जो उत्पादित पदार्थ हैं, उनका समुचित संकलन हो सके, संरक्षण हो सके, वितरण हो सके, उपभोग हो सके, इसकी जो स्वस्थ विधा है उसी का नाम मैनेजमेंट अथवा व्यवस्था है

 

एक विचित्र तथ्य है, जो भी मैनेजर व्यवस्थापक होते हैं या प्रबंधक होते हैं, उनको शिक्षा लेनी चाहिए, गोस्वामी तुलसीदास जी महाभाग का एक वचन है:- 

 

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।

पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।।

 

मुख का अर्थ यहाँ पर मुखगत प्राण है। हमारे-आपके जीवनमें मुख में सन्निहित जो प्राण है, वह जिस प्रकार अङ्ग-प्रत्यङ्ग का पालन पोषण विवेक पूर्वक करता है। सामान्य रीतिसे हमको लगता है कि अन्न-जल का सेवन प्राण करता है, भूख प्यास हमको लगती है वह प्राण की महिमा है और अन्न-जल का सेवन हम आप करते हैं वो प्राण के माध्यम से करते हैं। लेकिन प्राण में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है। विवेकयुक्त प्रज्ञाशक्ति सम्पन्न प्राण होता है। शरीरके जिस अङ्ग-प्रत्यङ्ग को जिस प्रकारका पोषण प्राप्त अन्न-जल के द्वारा चाहिए, प्राण करता है। कर्मेन्द्रियों को, ज्ञानेन्द्रियों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार को, स्वयंको भी प्राण परिपुष्ट करता है। तो जिस प्रकार प्राणमें एक तो अहङ्कार नहीं है। दूसरा, प्राण में आसक्ति नहीं है, तीसरा आलस्य नहीं है, चौथा प्राण में स्वार्थ का सन्निवेश नहीं है।

 

 

 

उत्तम प्रबंधक किसको कहते हैं?  जो अहङ्कारसे शून्य हो, आसक्तिसे शून्य हो, इसी प्रकारसे आलस्यसे शून्य हो और स्वार्थ विहीन हो तो उत्तम प्रबंधक को प्राण के समान होना चाहिए, गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के माध्यमसे यह प्रेरणा प्रस्तुत की, एक मार्गदर्शन किया। 

साथ ही साथ हमको यह विचार करना चाहिए कि व्यवस्था चेतन के लिए होती है या जड़ के लिए?

 पृथ्वी पृथ्वी के लिए है? नहीं है। पृथ्वी पृथ्वीके लिए नहीं होती, पानी पानीके लिए नहीं होता, प्रकाश प्रकाशके लिए नहीं होता, पवन पवनके लिए नहीं होता, आकाश आकाशके लिए नहीं होता, चटाई चटाईके लिए नहीं होती, खटाई खटाईके लिए नहीं होती, मिठाई मिठाईके लिए नहीं होती। जितनी जड़ वस्तुएं हैं, वे सब चेतन जीव का भोग्य बनती हैं। इसलिए सारी सृष्टि जो कुछ जड़ वस्तुओंसे बनी है, सबका उपभोक्ता जीव होता है। जीवके लिए जड़ वस्तुएं हैं, यह अनुभवके द्वारा सिद्ध है, आस्तिक नास्तिक उभय सम्मत यह सिद्धांत है। 

 

अब एक विचार करना चाहिए, हमको अपनी आवश्यकताका ज्ञान ठीकसे होगा, हमारी चाहका सचमुच में विषय क्या है इसका ज्ञान हमको ठीकसे होगा तो व्यवस्था दिशाहीन नहीं होगी। हर व्यक्तिके जीवन में भूख है, प्यास है, सर्दी है, गर्मी है। ये स्थूल शरीरकी प्रधानतासे प्राप्त होने वाले द्वंद्व हैं- सर्दी, गर्मी, भूख और प्यास । फिर मन की प्रधानतासे भी बहुतसे द्वंद्व हमको प्राप्त होते हैं- हानिकी भावना, लाभकी भावना, शत्रुकी भावना, मित्रकी भावना, ये सब भावनाएँ। जड़ काम, जड़ क्रोध, जड़ लोभ ये सब मन की प्रधानतासे प्राप्त होने वाली समस्याएं हैं। इन सबका समाधान जीव प्रकृतिप्रदत्त वस्तुओंके माध्यमसे और अपने उद्योगसे करता है। थोड़ा विचार करके देखें तो भोजनके लिए हमको कृषिकी आवश्यकता पड़ेगी ही। कृषिके सम्पादनके लिए विविध सहयोगियोंकी आवश्यकता पड़ेगी। भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय इत्यादिकी व्यवस्था सबको संतुलित रूपमें सदा सुलभ हो इसकी वैज्ञानिकतम, दार्शनिकतम और व्यवहारिक धरातल पर बिल्कुल उचित व्यवस्था का नाम क्या है? - सनातन वैदिक आर्य सम्मत व्यवस्था। आप बहुत गंभीरता पूर्वक वेदादि शास्त्रोंका निरूपण करेंगे तो, अध्ययन करेंगे तो, उसके अनुसार बुद्धिको विकसित करेंगे तो यही सिद्ध होगा कि शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवा के प्रकल्प सबको सदा संतुलित रूप में सुलभ हों इसकी स्वस्थतम दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक धरातल पर जो विधा या व्यवस्था है उसी का नाम सनातन शास्त्रोंमें प्रबन्धन है मैनेजमेंट है, यह ध्यान रखने की आवश्यकता है।

 

साथ ही साथ यह भी विचार करना है कि दार्शनिक, वैज्ञानिक ढंगसे विचार करने पर हमारा आपका जो शरीर है वो पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश का सङ्घात अर्थात् पञ्चभूतोंका तारतम्य सङ्घात है। पञ्चभूतोंके साथ हमारे शरीर की तादात्म्यापत्ति है। पञ्चभूतोंमें ही इस शरीरको मिलना है और शरीरका पोषण भी पञ्चभूतोंके द्वारा होता है। ऐसी स्थितिमें हम व्यवस्थाके नाम पर कोई ऐसा अभिशाप न मोल लें जो पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन और आकाश के लिए घातक सिद्ध हों। थोड़ा ध्यान देकर सुनें, आजकल ऊर्जाके जितने स्त्रोत हैं पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश इन सबको विकासके नाम पर कलुषित, विकृत, क्षुब्ध करनेका प्रयास किया जा रहा है।

 

उदाहरण के लिए आकाशकी उपयोगिता हमको परिलक्षित नहीं होती लेकिन आकाश ही नहीं हो तो पवन या वायु कहाँ रहे? सूर्य, चन्द्र, अग्नि कहाँ रहें? जल कहाँ रहे? पृथ्वी कहाँ रहे? ऊर्जाके जो आस्तिक नास्तिक उभयसम्मत पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन ये चार स्त्रोत हैं, निष्क्रिय होने पर भी व्यापक होनेके कारण आकाश इन सबका आश्रय है। लेकिन हमने वेदविहीन विज्ञानके द्वारा विकासको परिभाषित किया, क्रियान्वित किया उसके गर्भसे महाविस्फोट... विश्वस्तर पर समष्टि सन्निपात का उदय हुआ है। ऊर्जाके पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन ये चारों स्त्रोत दूषित, विकृत और अत्यंत क्षुब्ध या कुपित कर दिये गये हैं। इसलिए आजकल सुखमय जीवनकी भावनासे जो भी व्यवस्थाकी जायेगी उसके गर्भसे विस्फोट निकले बिना नहीं रहेगा। तो व्यवस्थापकों का यह दायित्व होता है, हर व्यक्तिका यह दायित्व है कि वह पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन जो ऊर्जाके चार स्त्रोत हैं उनको दूषित, विकृत या क्षुब्ध किये बिना अपने जीवनकी आवश्यकताओंकी पूर्ति कर  सके।

 

आगे हम एक संकेत करना चाहते हैं:- व्यवस्थाके दो भेद होते हैं।

एक तो शरीरको आत्मा मान करके व्यवस्थाकी जाती है जिसको नास्तिकोंकी व्यवस्था, भौतिकवादियोंकी व्यवस्था, कम्युनिज्मकी धारा में बहने वालोंकी व्यवस्था या चार्वाकोंकी व्यवस्था कहते हैं। आजकल विश्व में विकासके नाम पर भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय, विवाह इत्यादिके जितने प्रकल्प चल रहे हैं, शरीरको आत्मा मान करके ही क्रियान्वित हैं। शरीरको आत्मा मान करके शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्तिकी भावनासे जो व्यवस्थाकी जाती है वो बहुत ही स्वल्प होती है। उसके द्वारा जीवन अत्यंत विकसित नहीं होता। इसलिए वेद सम्मत विज्ञानकी दृष्टिसे जो व्यवस्थाका स्वरूप निर्धारित किया जाता है उसीकी हम प्रशंसा कर सकते हैं, उसीसे समग्र जीवनका पोषण हो सकता है, उसीसे सब प्रकारकी आवश्यकताओंकी पूर्ति भी हो सकती है, इस पर ध्यान देनेकी आवश्यकता है।

 

वैदिक व्यवस्थाकी आधारशिला क्या है, ध्यान देकर सुनिये। देह के नाश से जीव का नाश नहीं होता, देह के भेद से जीव में भेद की प्राप्ति नहीं होती। कल्पना कीजिये किन्हीं महानुभावकी आयु पचास वर्षोंकी हो गयी है, पचास वर्षोंकी सीमा में कदाचित् एक-एक वर्षकी सीमामें दस-दस स्वप्नही उन्होंने देखा हो तो भी पाँचसौ स्वप्नके उनके शरीर नष्ट हो गये, परन्तु वे अपना नाश नहीं मानते। इसका अर्थ हो गया कि शरीरके नाशसे जीवका नाश नहीं होता। शरीरकी सङ्ख्या पचास हो जाने पर भी वे स्वयंको एक ही मानते हैं। इस दृष्टांतके बल पर डंकेकी चोटसे यह तथ्य सिद्ध है कि देहके भेदसे वस्तुतः आत्मामें भेदकी प्राप्ति नहीं होती। तो हमारे यहाँ लौकिकी समस्याका समाधान ही व्यवस्था नहीं है, परलोककी मान्यताके आधार पर भी व्यवस्था करनेकी आवश्यकता होती है।

 

और अंतमें व्यवस्थाका स्वस्थ स्वरूप क्या है, इस पर विचार करनेकी आवश्यकता है। नास्तिक हों या आस्तिक, नर हो या वानर, स्त्री हो या पुरुष, भाजपाई हो या कांग्रेसी  सार्वभौम सिद्धांत यह है कि विचार करना चाहिए –

 

जितने स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं उनकी चाहका विषय क्या है सचमुच में? अगर चाह, आवश्यकताका हमको ज्ञान हो जाये तो व्यवस्थाका उत्तम मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। हमने क्या कहा- एकांतमें बैठकर विचार करना चाहिए कि सचमुचमें हमारी चाहका विषय क्या है? हम चाहते क्या हैं? हमारी चाहका आंकलन हो जाने पर हम उसकी पूर्तिके जो मार्ग स्वस्थ ढंगसे निकालेंगे उसीका नाम प्रबन्धन होगा। एक विचित्र बात है- जो स्थावर प्राणी हैं, तरु, लता, गुल्म इत्यादि उनकी इच्छाका आंकलन बहिर्मुख व्यक्ति नहीं

 

कर सकता। लेकिन चींटी, चिड़िया, पशु, पक्षी इत्यादि जो जङ्गम प्राणी हैं जो चलने, फिरने, उड़ने में समर्थ हैं, उनकी आवश्यकताका आंकलन हम सुगमता पूर्वक कर सकते हैं। लेकिन बहिर्मुखता की स्थिति में जब हम दूसरे प्राणियों की आवश्यकताका आंकलन भी सुगमता पूर्वक हम नहीं कर सकते, परन्तु अपना जीवन तो चौबीस घण्टे अपने साथ है, अपने जीवनकी आवश्यकताका आंकलन तो हम कर ही सकते हैं। 

 

आवश्यकताके दो भेद हैं। अतः व्यवस्थाके भी दो भेद हो जाते हैं सज्जनों। पहली आवश्यकता है जिसका वर्णन मैंने संकेत में किया। भूख लगती है तो भोजन चाहिए। प्यास लगती है तो पानी चाहिए। ये सब क्या है? सर्दी लगती है तो सर्दीको दूर करनेकी सामग्री चाहिए। गर्मी लगती है तो गर्मीको दूर करनेकी सामग्री चाहिए। आजकल जो भौतिकवादी व्यवस्था करते हैं। इन द्वंद्वोंके आधार पर ही उनकी व्यवस्थाकी रूपरेखा निर्धारित होती है। लेकिन सचमुचमें हमारे आपके जीवनकी ये मौलिक आवश्यकताएं नहीं हैं। मौलिक आवश्यकताओं पर आपका ध्यान केंद्रित होता ही नहीं क्योंकि बहिर्मुखताकी पराकाष्ठा है। आध्यात्मिक दृष्टिसे हम विचार करें तो ये प्रश्न उपस्थापित होता है कि हमारी आपकी चाह का सचमुच में विषय क्या है? तो निष्कर्ष निकलेगा कि मृत्युके चपेट से विनिर्मुक्त जीवन। ऐसा जीवन जहाँ मौत की छाया भी न पहुँच सके। एक बार लगभग बीस वर्ष पहले बिहारकी राजधानी पटनामें चिकित्सा और अध्यात्म विषय पर मैं प्रवचन कर रहा था। प्रांतीय और राष्ट्रीय, कुछ एशिया स्तर के सज्जन भी थे। मैंने उनको हंसाते हुए कहा था आजकल दवाके पैकेट पर दवाकी मौतकी तिथि अङ्कित होती है। जिस दवाकी मौतकी तिथि पहलेसे सुनिश्चित है, उस दवाका सेवन करके कोई ऐसी कल्पना कर ले कि सदाके लिए मौतके चपेट से मुक्त हो जाऊँगा, विडंबना की पराकाष्ठा है, तो सज्जन हँस पड़े। बात सच्ची है या नहीं? जिस दवा की मौतकी तिथि पहलेसे अङ्कित कर दी गयी है, उस दवाका आप सेवन कीजिए मैं प्रतिबंधित नहीं करता, लेकिन यह मान कर कीजिये कि इस दवाके सेवनसे मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्तकी जा सकती। चाहे अमीबा नामक सूक्ष्म जीव हो, वह भी मौत से बचने का प्रयास करता है। 

 

तो हमने एक संकेत किया कि चींटी, चिड़िया इन सबकी पहली आवश्यकता क्या है? ऐसा जीवन जहाँ मौतकी छाया भी न पहुँच सके, यह सार्वभौम सिद्धांत है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। बहुत अच्छा उदाहरण है- एक भूखा व्यक्ति भोजन क्यों करना चाहता है? भूखे व्यक्तिकी भोजनमें प्रीति-प्रवृत्ति क्यों होती है? उसका नियामक कौन है? उत्तर यही

 

 

मिलेगा:- मौत का भय और अमृतत्व की भावना। कहीं भूखके चपेट में आकर मैं दम न तोड़ जाऊँ, ये मौतका भय है। और जब हृदयमें मौतका भय है तो मौतसे बचनेकी भावना भी है ही, अमृतत्वकी भावना है ही।

 

तो भूखे व्यक्तिकी भोजनमें प्रीति और प्रवृत्तिका नियामक कौन है? मौतका भय और अमृतत्वकी भावना। अब भरपेट रबड़ी, कचौरी, मालपुआ, घेवर, मोहनभोग और श्रीखण्ड , गुजरात में जो भोजन पसन्द हो, मुझे तो यहाँ का ज्यादा अनुभव नहीं है, वो भोजन कर लिया। अब कोई कहे कि और लीजिये और लीजिये तो? भोजन से निवृत्ति और उपरामताका नियामक कौन है? वही। कहीं अधिक भोजन कर लेने पर चौबे कांड न हो जाये, दम न तोड़ दूँ, अर्थात मौतका भय। और अंतमें जहाँ मौतका भय हृदयमें प्रतिष्ठित है वहाँ अमृतत्वकी भावना है ही। कोई छल तो नहीं कर रहे न? सार्वभौम बात है या नहीं? नास्तिक शिरोमणि भी इसको मानने के लिए बाध्य है। हर जीव की इच्छाका पहला विषय है ऐसा जीवन जहाँ मौतकी छाया भी न पहुँच सके।

 

अब मैं प्रश्न करता हूँ - कौन सा विश्वविद्यालय है जहाँ मौतके भयसे, मौतकी पहुँचसे सदाके लिए मुक्तिका प्रबन्धन किया गया हो? मुख्य प्रबन्धन तो है ही नहीं। भूख लगने पर भोजन… एक विचित्र बात है- अगर विश्वमें अन्न का अस्तित्व न हो तो किसीको भूख लगेगी क्या? भूख का लगना डंकेकी चोट से इस तथ्यको सिद्ध करता है कि भोजनका अस्तित्व है या भोजन उपलब्ध हो सकता है। इसी प्रकार प्यासका लगना डंकेकी चोट से पानीके अस्तित्वको सिद्ध करता है। इसी प्रकार से मृत्युञ्जय पद प्राप्त करने की भावना, ऐसा जीवन जहाँ मौतकी छाया न पहुँच सके, यह भावना डंकेकी चोट से मृत्युञ्जय तत्वको सिद्ध करती है। तो प्राणियोंकी चाहका सचमुचमें विषय क्या है? भूख, प्यास ये सब तो अवान्तर विषय हैं, मुख्य विषय है मृत्युके चपेट से विनिर्मुक्त जीवन।

 

"असतो मा सद्गमय…."  वेद (बृहदारण्यक उपनिषद) :- हे प्रभो, मेरे जीवनमें वह बल और वेग भर दो कि जो कुछ असत्, अनित्य, मरणधर्मा है उससे पिंड छुड़ाकर अमृतत्वस्वरूप होकर शेष रह सकूँ जहाँ मृत्यु की छाया भी न पहुँच सके। 

प्राणियोंकी प्रवृत्ति या निवृत्तिका दूसरा नियामक कौन है? हमारी और आपकी चाह का दूसरा विषय क्या है इसपर विचार करना चाहिए:- मूर्खता, अज्ञता या जड़ताके चपेट से विनिर्मुक्त विज्ञान।  है या नहीं? छोटे बच्चे पक्षियों को उड़ते हुए देखकर पूछते हैं यह क्या ? यह क्या? 

 

इस तरह हज़ारों प्रश्न करते हैं या नहीं? इसका अर्थ क्या है? मूर्खता, अज्ञता या जड़ताके चपेट से विनिर्मुक्त अखण्ड विज्ञानकी पिपासा या चाह हमारे जीवनमें निसर्गसिद्ध है। इसलिए तो विद्यालयोंमें बच्चोंको भेजते हैं, पढ़ते हैं, इसके पीछे क्या है? मूर्खता, अज्ञता, जड़ता, नासमझीके चपेट से विनिर्मुक्त अखण्ड विज्ञानकी भावना, पिपासा व्यक्तिके जीवनमें सहज सिद्ध है।

 

तीसरी आवश्यकता क्या है? हमारी चाह का सचमुचमें विषय क्या है? दैहिक, दैविक, भौतिक ताप के चपेट से विनिर्मुक्त ऐसा आनन्द जहाँ दुःख की छाया भी न पहुँच सके। दुःख किसीको पसन्द है क्या? ऐसा आनन्द जहाँ दुःख की छाया भी न पहुँच सके। जैसे भूख के बल पर डंकेकी चोट से यह बात सिद्ध है कि अन्न का अस्तित्व है, भोजनका अस्तित्व है। प्यासके बल पर डंके की चोट से यह तथ्य सिद्ध है कि विश्व में पानी का अस्तित्व है। उसी प्रकार मृत्युञ्जय पद प्राप्त करनेकी निसर्गसिद्ध इच्छाके बल पर डंकेकी चोट से यह तथ्य है कि कोई अमृतस्वरूप तत्व है जहाँ मौत की छाया भी नहीं पहुँच सकती। इसी प्रकार विज्ञान की भावना, अखण्ड विज्ञान (चिद्) रूप होकर रहनेकी भावना डंकेकी चोट यह सिद्ध करती है कि परमात्माके द्वारा अज्ञता, जड़ताके चपेट से विनिर्मुक्त अखण्ड विज्ञानकी व्यवस्था है। तीसरी बात यह है दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापोंके चपेट से विनिर्मुक्त अखण्ड आनन्दकी भावना हमारे आपके जीवन में है। तो यह भावना डंकेकी चोट से इस तथ्यको सिद्ध करती है कि अखण्ड आनन्द भी जीवन में है। जिसको आपने प्रायः नहीं सुना होगा वो मैं कहूँ - प्रबन्धन।

 

'गाढ़ी नींद में'

एक विचित्र बात है - जितना प्रबन्धन चाहिए सब कर लीजिए। भोजनके स्थान पर भोजनकी व्यवस्था, वस्त्रके स्थान पर वस्त्रकी व्यवस्था, आवासके स्थान पर आवासकी व्यवस्था, शिक्षाके स्थान पर शिक्षाकी व्यवस्था, स्वास्थ्यके स्थान पर स्वास्थ्यकी व्यवस्था, यातायातके स्थान पर यातायातकी व्यवस्था, किसीको विवाह चाहिए तो विवाहके स्थान पर विवाहकी व्यवस्था, न्यायके स्थान पर न्यायकी व्यवस्था, ऐसे नाम लेते चलिये सारी व्यवस्थाएं सुलभ हों लेकिन नींद न सुलभ हो तो इन सब व्यवस्थाओंके गर्भ से, अव्यवस्था नहीं, इन सब व्यवस्थाओंके गर्भसे क्या निकलेगा? -  विक्षेप। पागलपन निकलेगा या नहीं? हमको वह व्यवस्था भी चाहिए या नहीं? वस्तुतः तो वही व्यवस्था चाहिए जिसके बिना सारी व्यवस्थाओं पर पानी फिर जाता है। भोजनके स्थान पर भोजन, वस्त्रके स्थान पर वस्त्र, आवासके स्थान पर आवास, शिक्षाके स्थान पर शिक्षा, स्वास्थ्यके स्थान पर स्वास्थ्य, रक्षाके स्थान पर रक्षा, न्यायके स्थान पर न्याय, विवाहके स्थान पर विवाह, सारी व्यवस्था हो लेकिन एक व्यवस्था न हो, नींद सुलभ न हो। तो सारी व्यवस्थाओं के गर्भ से कौन सी अव्यवस्था निकल आएगी? पागलपन या विक्षेप निकल आएगा या नहीं? थोड़ा विचार कीजिये… जब ज्योति बसु जी का ताण्डव नृत्य, प्रचण्ड शासन चल रहा था बंगालमें तब मैं संकेतमें बोलता था – ए व्यवस्था के पक्षधरों, भौतिक व्यवस्थाके पक्षधरों सुन लो। कम्युनिज्मकी सीमामें तो व्यवस्थाका अर्थ क्या होता है? उनके मत में शरीर ही आत्मा है। चेतना विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। और विषयजन्य आनन्द ही आनन्द है। भौतिकवादियोंको दो व्यवस्था चाहिए - १. यह शरीर स्वस्थ रहे, क्योंकि चेतना विशिष्ट शरीर उनके यहाँ आत्मा है। २. अनुकूल शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ; उनके अभिव्यञ्जक संस्थान जो कुछ हैं - स्त्री, भोजन इत्यादि ये सुलभ हों, विषयजन्य आनन्द जीवन में उमड़ता रहे।

बस भौतिक वादियोंकी व्यवस्था पूर्ण हो गयी। एक तो शरीरको स्वस्थ रखनेके लिए भोजन आदिकी व्यवस्था कर लीजिए, अनुकूल विषयका सेवन करके जीवन में आनन्द या आह्लादको भर दीजिये। विषयजन्य आनन्दके तीन प्रभेद हैं सज्जनों।  तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार पहला प्रभेद है - प्रिय, दूसरा प्रभेद है - मोद, तीसरा प्रभेद है - प्रमोद। 

 

इच्छित वस्तु या व्यक्तिका संकलन व्यवस्थाका मार्ग है या नहीं? इच्छित वस्तु या व्यक्तिके मिलनेकी सम्भावनासे या मिल जाने पर जो मनमें उल्लास विशेषका उद्रेक होता है उसका नाम है सज्जनों - प्रिय।

इच्छित वस्तु का सेवन - जैसे किसीको रबड़ी पसन्द है, रबड़ीकी प्राप्ति भी हो गयी और रबड़ीका सेवनभी उसने शुरू कर दिया। इच्छित वस्तुके सेवन से जो मनमें आह्लादका उद्रेक होता है, उसका नाम है- मोद।

इच्छित वस्तुका यथेच्छ सेवन कर लेने पर बाह्याभ्यंतर जो आनन्दकी अभिव्यक्ति होती है (overflowing), उसका नाम है - प्रमोद। 

 

व्यवस्थाके ऊपर बहुत क्रांतिकारी प्रश्नचिह्न है। सबसे ऊँची व्यवस्था जिसको प्रियके स्थान पर प्रिय, मोदके स्थान पर मोद, प्रमोदके स्थान पर प्रमोद सुलभ है। किसी प्रकारका जीवन में ताप नहीं है, किसी प्रकारकी वेदना नहीं है, भौतिकवादी कहेंगे सारी व्यवस्था परिपूर्ण है।

अध्यात्मवादी कहेंगे- पागल होने का मार्ग प्रशस्त है।

 

भौतिकवादियों को उनके सिद्धांत की सीमा में, उनके मैनेजमेंटकी परिभाषाकी सीमा में नींदका अधिकार प्राप्त नहीं है। क्योंकि निद्रा प्राप्त करते ही 'शरीर आत्मा है' इस सिद्धांत पर पानी फिर जाएगा। निद्राका वेग ही 'शरीर आत्मा है' इस सिद्धांत पर पानी फेर देता है। विषयजन्य आनन्द ही आनन्द है, इस व्यवस्था पर, परिभाषा पर पानी फेर देता है। इसलिए पञ्चदशीकार विद्यारण्य स्वामी जी ने कम्युनिज्म पर भौतिकवादियोंकी व्यवस्था पर, हम इसके पक्षधर हैं लेकिन यही व्यवस्था पर्याप्त नहीं। हम इसके पक्षधर हैं लेकिन यही व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। इसलिए हमने संकेत किया - पञ्चदशीकार विद्यारण्य स्वामी जी ने एक प्रश्न उठा दिया - क्या प्रश्न उठाया? जिसके जीवनमें कोई संताप या वेदना नहीं है, विषयजन्य आनन्दके स्थान पर आनन्द भरपूर है, अब यदि उसे नींद न आवे तो क्या होगा? जिसको विषयजन्य आनन्द पूरा प्राप्त है, अगर उस विषयजन्य आनन्दको भुलाकर वो गाढ़ी नींद न प्राप्त कर सके तो पागल होगा या नहीं? 

 

अंत में दार्शनिक, वैज्ञानिक धरातल पर व्यवस्था का मौलिक स्वरूप क्या है? उसी आधारशिला का विचार कीजिये। इस पर विचार कीजिये :- जहाँ विषय जन्य आनन्द होता है वहाँ त्रिपुटि होती है। जैसे सामने ये फूल है -कल्पना कीजिये कि इन पुष्पों को देखकर मुझे आह्लाद होता हो, या पुष्पोंको छूकर मुझे आह्लाद होता हो, या पुष्पोंको सूंघकर मुझे आह्लाद होता हो, ये पुष्प क्या हो गये - भोग्य! इनके दर्शन, स्पर्श आदिसे जो आनन्दकी अनुभूति हो रही है उसका नाम हो गया - भोग। और मैं हो गया भोक्ता। जहाँ विषयजन्य आनन्द होता है वहाँ त्रिपुटी होती है।

भोग्य, भोग और भोक्ता। भौतिक व्यवस्था पर पानी फेरने के लिए ये समर्थ शब्द हैं। भौतिक व्यवस्था ही पर्याप्त नहीं है, मैं यह कहना चाहता हूँ। अब लीजिये जहाँ त्रिपुटी है वहाँ क्या होता है? द्वैत। द्वैत माने दो या दो से अधिक। और जहाँ द्वैत होता है, वहाँ द्वैत के गर्भ से निकलता है श्रम। अपना ही मुखचन्द्र देखते रहिए दर्पण के माध्यम से, श्रम होगा , थक जायेंगे। जहाँ द्वैत होता है वहाँ श्रम होता है और जहाँ श्रम होता है वहाँ खालिस / pure / निरतिशय आनन्द नहीं होता।

 

इसलिए भौतिकवादी अपनी मान्यता को ताक पर रखकर सोने के लिए विवश होते हैं। शरीरको भुलाकर ही नहीं, बहुत ऊँची बात है, बाहरके रिश्तेदार, नातेदार, भवन, पत्नी, पुत्र को ही नहीं अपने शरीरको भी भुलाकर सोने की भावना जगती है चौबीस घण्टे में एकबार। इतना ही नहीं इन्द्रियोंको, मनको, अन्तः करणको, इतना ही नहीं प्राणको भी, इतना ही नहीं विषयजन्य आनन्दको भी भुलाकर सोने की भावना जगती है। इसका मतलब क्या होता है सज्जनों? इसका अर्थ ये होता है कि हमको-आपको गाढ़ी नींद प्राप्त होती है। गाढ़ी नींद में चमत्कृति क्या है? आध्यात्मिक दृष्टिसे विचार करें - जैसे आग है आग, दारुगत, काष्ठगत अग्नि है। घर्षण के द्वारा आप उसको प्रचण्ड कर लीजिए, व्यक्त कर लीजिए। अब उसको तापिये, उसका सेवन कीजिए। दाह के प्रभावसे क्या होगा? उष्णताके प्रभावसे क्या होगा? सर्दीका निवारण होगा और अंत में प्रकाशके प्रभावसे क्या होगा? अंधकारमें भटकनेसे बन्द हो जाएंगे। अग्नितत्व का सेवन तत्काल फल देता है या नहीं? इसी प्रकार गाढ़ी नींद में क्या चमत्कृति है? हम अगर दार्शनिक, वैज्ञानिक ढंग से कहें तो ¾ भी अधिक मौत का नाम सज्जनों गाढ़ी नींद है। गाढ़ी नींद में शरीरका भान नहीं रहता, कर्मेन्द्रियाँ सो जाती हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ सो जाती हैं, अन्तः करण जिसे मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार कहते हैं ये भी सो जाते हैं। प्राणों का भान भी खो जाता है विलुप्त हो जाता है। ¾ से भी अधिक मौत का नाम गाढ़ी नींद है लेकिन वह गाढ़ी नींद जिसको प्राप्त है, भले ही बाहर से मरणासन्न हो, उस तक मौतके भयकी पहुँच नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, मोह ये सब मनोविकारों की पहुँच नहीं है। किसी भी दुःख की पहुँच नहीं है गाढ़ी नींद में। आधुनिक लोग कहते हैं, भौतिकवादी, कि गाढ़ी नींद में दुःख का अभाव होता है सुख नहीं मिलता, लेकिन यह बात भी ठीक नहीं। इस कक्ष में / हॉल में / भवन में अंधकार नहीं है, अगर डंके की चोट से यह तथ्य सिद्ध हो जाये तो मानना पड़ेगा कि प्रकाश अवश्य है। जिसकी विद्यमानताके कारण अंधकार नहीं है, तो उस प्रकाश का अस्तित्व माननेके लिए आप बाध्य होंगे। गाढ़ी नींदमें सुख किसीको प्राप्त नहीं होता यह आस्तिक, नास्तिक उभय सम्मत सार्वभौम सिद्धांत है। लेकिन गाढ़ी नींद में सुखोपलब्धि नहीं होती तो दुःख का अभाव कैसे होता? तो बात क्या है? भगवान् जो सच्चिदानन्द हैं, उनके हम अत्यंत सन्निकट पहुँच जाते हैं, उनकी कृपा से गाढ़ी नींद में। उसकी एक प्रक्रिया है। गाढ़ी नींद में सच्चिदानन्द के समीप, भगवत्तत्व के समीप हम और आप पहुँच जाते हैं। उसका सन्निकटता से सान्निध्य जीवों को प्राप्त होता है। इसलिये किसी द्वंद्व की, मृत्यु के भय की, यहाँ तक कि काम-क्रोध आदि विकारों की, किसी दुःख की पहुँच जीव तक नहीं होती। अब थोड़ा विचार कीजिये, लेकिन द्वंद्वों का, मृत्यु आदि का बीज गाढ़ी नींद में शेष रहता है। मृत्यु, जड़ता, दुःख के बीज का नाम अज्ञान है। उस अज्ञानको दग्ध करनेके लिए जो व्यवस्था है उसका नाम तत्त्वज्ञान है। सबसे ऊँची व्यवस्था यही है तत्त्वज्ञान। अगर तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो ये क्रम चलता ही रहेगा। 

 

अब हम एक संकेत करते हैं - मन को थोड़ा एकाग्र कीजिये। कार्यकी अपेक्षा कारणका महत्व अधिक होता है या कारण की अपेक्षा कार्य का महत्त्व अधिक होता है? हम व्यवस्थाकी दृष्टि से बोलते हैं- व्यवस्था करनेमें सबसे उत्तम व्यक्ति कौन होता है सज्जनों? सामान्य और विशेष दोनोंका जिसको विज्ञान प्राप्त हो और सामान्य या विशेषके उपयोग में जो

 

 

माहिर या दक्ष हो, कुशल हो - वो उत्तम व्यावस्थापक होता है। जैसे मिट्टी सामान्य है लेकिन उससे घट, बर्तन इत्यादि बना लेते हैं, काष्ठ सामान्य है उससे मेज़, कुर्सी आदि बना लेते हैं। इसी प्रकारसे समझना चाहिए कि अन्न सामान्य है उससे विविध प्रकारके भोज्य पदार्थ बना लेते हैं। सुवर्ण सामान्य है उससे मुकुट, कुण्डलादि विविध आभूषण बना लेते हैं। विशेषको सामान्यका रूप देना सामान्यको विशेषका रूप देना यह दक्षता जिसमें है वह उत्तम कोटि का व्यवस्थापक होता है। तो हमने एक संकेत किया सारी व्यवस्था की आधारशिला ये है - सामान्यको विशेष रूप दिया जाता है। जैसे प्रकृतिने हमको पत्थर दिया, विविध प्रकारकी सामग्री दी, हमने उसका ऐसा उपयोग किया कि भवनकी व्यवस्था हमने कर दी। तो प्रकृति प्रदत्त जो सामान्य वस्तु हैं उनको विशेष रूप देने वाला उत्तम व्यवस्थापक होता है। इसलिए सामान्यका आदर और सामान्यको विशेषके रूप में परिणत करनेकी विधामें जो माहिर है उसको हम उत्तम व्यवस्थापक कहते हैं। 

 

साथ ही साथ उत्तम प्रबंधक कौन होता है ? साधक-बाधक भाव का जिसको ज्ञान होता है। जैसे पानी अग्नि को बुझाने वाली सामग्री है लेकिन हम क्या करते हैं, आग और पानी के बीच में बटलोई लाकर रख देते हैं। बटलोई के अंदर पानी भर देते हैं। अब अग्नि से दाहकता, उष्णता तो पानी को प्राप्त हो जाती है लेकिन आग बुझ नहीं पाती है। ये क्या है ? साधक बाधक भाव का विज्ञान। इसी प्रकार भोजन इत्यादि बनाते हैं, वस्त्र इत्यादि बनाते हैं। व्यवस्था में वह व्यक्ति कुशल होता है जिस व्यक्ति को देश का, काल का, परिस्तिथि का, व्यक्ति के स्वभाव का आंकलन प्राप्त होता है और साधक-बाधक भाव के प्रयोग में, इसे समझने में जो दक्ष होता है। हम एक संकेत कर रहे थे :- सामान्य का विशेष उपयोग विशेष के द्वारा होता है। जैसे केवल काष्ठ हो या प्लास्टिक हो तो कुर्सी का रूप धारण न कर पावे। सामान्य की अधिक उपयोगिता सिद्ध होती है विशेष के माध्यम से लेकिन विशेष की सत्ता और उपयोगिता निर्भर करती है सामान्य पर। लोहा और प्लास्टिक नामक मैटर / धातु / पदार्थ ही न हो तो माइक नामक यंत्र न बन सके। लेकिन केवल लोहा हो, प्लास्टिक हो तो वह काम उससे नहीं सध सकता जो काम माइक से सध रहा है।

लेकिन हम एक संकेत करना चाहते हैं सावधान :- अन्न जो है चावल, रोटी ये सब ये क्या है? पार्थिव है। पृथ्वी का अंश है। गंधवती पृथ्वी होती है। अन्न इत्यादि में गंध नामक गुण होता है। इसलिए हम इनको पार्थिव कहते हैं। एक व्यक्ति भोजनके बिना जितने दिनों तक जीवित रह सकता है, इतने दिनों तक क्या पानीके बिना जीवित रह सकता है? नहीं रह सकता। इसका अर्थ क्या है? अन्न का कारण जल है। अन्न में पाँच गुण हैं-  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। जल में चार गुण हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस। सन्निकट निर्विशेषका नाम क्या होता है? पाँचकी अपेक्षा चार मूल अङ्क है। इसी प्रकार पाँच गुणों वाली पृथ्वी की अपेक्षा चार गुणों वाला जो जल है वह मूल तत्व है। जल के बिना कोई व्यक्ति उतने दिनों तक जीवित नहीं रह सकता जितने दिनों तक अन्न के बिना रह सकता है।  वृंदावनमें दो सन्तों ने अलग-अलग समयमें अन्न और जल का त्याग कर दिया। चौदहवें-चौदहवें दिन दोनों का देहांत हो गया। लेकिन हमारे गोवर्धन मठ पुरी पीठ के पूर्वाचार्य जी ने स्वनामधन्य निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज, उन्होंने 72 दिनों तक गौवंश की रक्षा के लिए अनशन किया था। 72 दिनों तक अनशन करने पर भी शरीर बचा रहा। एक व्यक्ति अन्न के बिना जितने दिनों तक जीवित रह सकता है, अन्न के कारण जल के बिना उतने दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। तो व्यवस्थापकको इसका भी ज्ञान होना चाहिए।

 

और जल के बिना आज जितने दिनों तक हम और आप जीवित रह सकते हैं, जल का कारण तेज जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप ये तीन ही गुण हैं - शरीर में रहने वाली ऊष्मा उसके बिना उतने समय तक जीवित रह सकते हैं क्या ? नहीं रह सकते। आस्तिक नास्तिक उभयसम्मत सिद्धांत है। एक व्यक्ति जितने क्षणों तक शरीरमें रहने वाली ऊष्मा या गर्मीके बिना जीवित रह सकता है, क्या उतने समय तक या उतने क्षणों तक प्राण (पवन) के बिना जीवित रह सकता है? नहीं रह सकता। आस्तिक नास्तिक अभयसम्मत सिद्धांत है। और अधिक बुद्धिको विकसित कीजिए - एक व्यक्ति जितने क्षणों तक प्राण पवन के बिना जीवित रह सकता है, किया उतने क्षणों तक दो गुणों वाला जो वायु तत्व है, उसकी अपेक्षा निर्विशेष, उसका कारण आकाश, केवल एक गुण (शब्द) वाला आकाश उसके बिना जीवित रह सकते हैं क्या ? यदि शरीर में अवकाशप्रद आकाश न हो तो अन्न कहाँ जाए? जल कहाँ जाए? तेज कहाँ जाए? वायु का संचार कहाँ हो? इसका अर्थ है कि पृथ्वी की अपेक्षा पानी का, पानी की अपेक्षा प्रकाश (ऊष्मा) का, ऊष्मा की अपेक्षा पवन का, पवन की अपेक्षा आकाश का जीवन में अधिक महत्व है। 

 

हमने कुछ देर पहले कहा था- पृथ्वी पृथ्वी के लिए नहीं, पानी पानी के लिए नहीं, प्रकाश  प्रकाश के लिए नहीं,  पवन पवन के लिए नहीं, आकाश आकाश के लिए नहीं; ये सब चेतन के लिए हैं जीव के लिए हैं। और अंत में  जीव के बिना तो जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वो जीव किसके लिये है?  उस जीव की चाह का विषय सचमुच में कौन है? सच्चिदानन्द।  जो उसका मौलिक स्वरूप है, वही हम आप जीवों की चाह का सचमुच में विषय है।

 

इसका हम उदाहरण देते हैं - कल्पना कीजिये वृक्ष है, उससे फल / पुष्प टूटते हैं। या कल्पना कीजिये कि हमने बल/वेग पूर्वक किसी पुष्प को ऊपर उछाला तो उस वेग के निरस्त होने पर वह पुष्प पृथ्वी की ओर आकृष्ट होगा या नहीं? वृक्ष से, लता से पत्र, पुष्प, फल के च्युत होने पर पृथ्वी की ओर वह आकृष्ट होगा या नहीं? क्यों?  पृथ्वी आयुषी है, वह अंश है। पत्र, पुष्प, फल ये सब अंश हैं। प्रत्येक अंश के आकर्षण का विषय अंशी होता है।  ये नियम है। अमेरिका में जिस भवन पर आक्रमण किया गया था वह 110 मंजिल का था। आजकल वैज्ञानिक विधा का आलंबन लेकर 110वीं मंजिल तक जल को पहुंचाया जा चुका है। 110 वीं मंजिल पर भी यदि जल से परिपूर्ण टूटी को खोलेंगे तो जल की धारा नीचे की ओर आप्लावित होगी या नहीं ? क्यों? जल की धारा अंश है। अंशी कौन है? महोदधि, समुद्र या सागर। प्रत्येक अंश स्वभावतः अपने अंशी की ओर आकृष्ट होता है। आप दीप को प्रज्वलित कीजिए तो अग्नि की शिखा ऊपर की ओर उठेगी। क्यों? अंश है। अंशी कौन है? नभोमण्डल में विराजमान आदित्य या सूर्य। प्रत्येक अंश स्वभावतः अपने अंशी की ओर आकृष्ट होता है। इसी प्रकार हम आप जीवों के जो अंशी सरीखे भगवान् हैं, वही हमारे आपके आकर्षण के केंद्र हैं।

 

सुवर्णाभूषण कटक, कुण्डल, मुकुटादि हमारे चित्त का आकर्षण करे तो भी सुवर्ण की विद्यमानता के कारण ही उसमें हमारे चित्त का आकर्षण / अपहरण करने की क्षमता है। इसी प्रकार यदि जल तरङ्गें  हमारे चित्त को आकृष्ट करे या

 

हमारी आंखों को लुभावे तो भी समझना चाहिए कि यदि जल उन्हें साधे न हो तो वो तरङ्गमाला  हमारे नयनों को प्रमुदित कैसे करे? इसी प्रकार हमारे-आपके आकर्षण के विषय कौन हैं? सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर। प्रत्येक अंश स्वभावतः अपने अंशी को चाहता है। जबतक अपने अंशी से एकीभूत नहीं हो जाता तब तक उसकी गति चलती ही रहती है। 

 

भौतिक व्यवस्था चाहिए लेकिन  केवल भौतिक व्यवस्था से जीवनकी सार्थकता सम्भव नहीं है। जन्म और मृत्यु की अनादि अजस्र परम्परा का आत्यंतिक उच्छेद नहीं है। 

विश्व में  जितनी व्यवस्थाएं हैं उनके गर्भ से प्रवृत्ति निकल रही है या नहीं? कोई व्यक्ति कोई काम आरम्भ करता है उसका नाम प्रवृत्ति है। अब देखिए कैसी व्यवस्था है उसमें?  प्रवृत्तिके गर्भ से प्रवृत्ति ही निकालने की विधा का नाम भौतिकवाद है। आजकल प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें किया जा सकता है क्या? निवृत्तिस्तु महाफलः किन्होंने कहा? मनुजी ने। जिस प्रवृत्तिके गर्भ से प्रवृत्ति ही निकलती जाए, वह प्रवृत्ति उन्मत्तोंकी चीज है, प्रवृत्तिकी सार्थकता नहीं है। जिस गति के गर्भ से गति निकलती जाए उस गतिकी दुर्गति मानी जाती है। गतिका पर्यवसान गंतव्य तक स्थिति में हो तब गति की सार्थकता मानी जाती है। आजकल की जो व्यवस्था है अत्यंत अधूरी इसलिए है कि वेदविहीन विज्ञान के कारण आज प्रवृत्ति का पर्यवसान प्रवृत्ति में ही हो सकता है, निवृत्ति में नहीं। इसलिए ये सारी व्यवस्थाएं त्रुटिपूर्ण हैं। 

 

कल्पना कीजिये हमको प्यास लगी और हमने पानी पिया तो क्या हम कह सकते हैं कि जीवन में अब फिर प्यास नहीं लगेगी? जठराग्नि के द्वारा पानी पच जाने पर फिर प्यास लगेगी या नहीं? लेकिन जैसे हमारी इच्छा का विषय है कि मौत की चपेट से हमेशा के लिए मुक्त हों, इसका हम उदाहरण दिया करते हैं, कोई मनुष्य, पशु, पक्षी प्यास की चपेट में आ गया हो, आप व्यवस्था क्या करेंगे? उसको जल देंगे जल पिलाएंगे। मानवोचित शील की सीमा में जल देंगे,  उसकी प्यास भी बुझ जायेगी लेकिन आप कल्पना कीजिए कहीं पानी को प्यास लग गई तो? जल को प्यास लग जाए या जल के देवता वरुण जी को प्यास लग जाए तो? हमारे जल संसाधन मंत्री कौन हैं? वरुण। जल बनाते कौन हैं? सूर्य, अग्नि। जल बरसते कौन हैं? इन्द्र। और  जल का संरक्षण कौन करते हैं? वरुण। जल के देवता वरुण को या इन्द्र को प्यास लग जाए तो पानी पिला कर उनकी प्यास को दूर करेंगे क्या? पानी को प्यास लग जाए तो

क्या पानी  पिलाएंगे? मनुष्य, पशु, पक्षी को प्यास लग जाए तो पानी पिलाएंगे। लेकिन पानी को ही प्यास लग जाए तो उसे पानी पिला कर उसकी पिपासा को दूर नहीं कर सकते। अंत में कहना पड़ेगा अरे ओ जलदेव! जिसके पान से प्राणी प्यास से मुक्त होते हैं वही तो तुम हो। ऐसे ही हम जीवों को मृत्युञ्जय पद, अखण्ड विज्ञान, अखण्ड आनन्द की प्यास लगी है।

 

बुरा न मानो होली है….. ब्रह्मा जी की आयु कितनी है जी? ब्रह्मलोक की गणना के अनुसार कुल 100 वर्ष। मृत्यु लोक की गणना के अनुसार 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष (गीता का आठवाँ अध्याय)। इतनी आयु है ब्रह्मा जी की। ऐसे 1000 ब्रह्मा जी की आयु भी जिसको प्राप्त हो जाए तो कालक्रम से एक दिन आयु समाप्त होगी या नहीं? फिर उसे मृत्यु

 

का भय लगेगा या नहीं? इसलिए मौत के भय से सदा के लिए मुक्त करने की दवा क्या है? जब तक हमें यह पता ना हो कि अक्षय आनन्द का नाम क्या है -  मृत्युञ्जय है, मैं ऐसा कोई तत्व हूँ जिसतक मौत की पहुँच नहीं है। मौत नाम की देवी भी आएगी तो हमारा दृश्य बन जायेगी। मैं ऐसा कोई तत्व हूँ जिसतक अज्ञान की भी पहुँच नहीं है। अज्ञान भी आएगा तो हम उसके प्रकाशक ही सिद्ध होंगे। मैं ऐसा कोई तत्व हूँ- जिस तक दुःख की पहुँच नहीं है। दुःख भी कोई आता है तो हम उसके ज्ञाता, उससे ऊपर सिद्ध होते हैं या नहीं? तो जब तक आत्मतत्व को सच्चिदानन्दस्वरूप नहीं जान लेते तब तक सारी व्यवस्था रहने पर भी व्यवस्था के गर्भ से अव्यवस्था निकल आती है। 

 

 एक उदाहरण देकर प्रवचन को विराम देता हूँ -  छछूंदर को जानते हो? जीवित छछुंदरके शरीर से भी दुर्गंध निकलती है। कहीं मरे हुए छछूंदर को कोई नाक से चिपका ले तो क्या उसे सुगंध मिल सकती है? नहीं न? दृष्टांत है।

आस्तिक, नास्तिक, भौतिक , अभौतिक जितने विचारक हैं सबके मत में शरीर नश्वर है या नहीं? संसार भी परिवर्तनशील है तो नश्वर है या नहीं? जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ।  दृश्य होने के कारण शरीर और संसार जड़ है या नहीं? दुःखप्रद तो है ही। शरीर और संसार असच्चिदानन्द है, जड़ है, नश्वर है, अनित्य है ये तो भौतिक, अभौतिक सबको मानने के लिये विवश होना पड़ता है। तो मरे हुए छछूंदर को नाक से चिपका कर के चमेली जैसी सुगंध थोड़े ही मिल सकती है। जब शरीर और संसार असच्चिदानन्द है तब इसको चिपकाकर के, माने इसमें अहंता, ममता करके मृत्यु, मूर्खता और दुःख के चपेट से हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं क्या ? नहीं हो सकते। अंत में सबसे उत्तम व्यवस्था क्या है गीता में भगवान् श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति वचन है:- 

" अनित्यं असुखं लोकं इमं प्राप्य भजस्व माम् ।" { गीता 9.33 - हे अर्जुन ! क्षणभङ्गुर और सुखरहित इस जगत को और मनुष्य शरीर प्राप्त करके तू मेरा ही भजन कर ।}

और  श्रीमद्भागवत में उद्धव जी के प्रति वचन है:- 

"एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम् । यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥" {श्रीमद्भागवत ११.२९.२२ - इस लोक में इस विनाशी असत शरीर द्वारा मुझ अविनाशी, सत्यतत्त्व को प्राप्त करने में ही विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा है।} 

 

अर्थात् बुद्धिमानों की बुद्धि (व्यवस्थापकों की व्यवस्था) की सार्थकता इसी में है कि अनित्य जीवन और सामग्री को प्राप्त करके उसका उपयोग और विनियोग इस ढंग से करें कि नित्य परमात्मा की, नित्य ज्ञान की, नित्य आनन्द की प्राप्ति हो जाए। सबसे ऊँची व्यवस्था,  सबसे ऊंचा व्यवस्थापक कौन होगा? थे या नहीं ? सबसे ऊंचे व्यवस्थापक राजा का नाम -  श्रीमद्भागवत चतुर्थ स्कंध - राजा पृथु।  आजकल के राजा जो हैं , अब तो मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री होने लगे हैं पूरे प्रांत या पूरे देश को ही अनाज देने की क्षमता नहीं है। 

राजा कौन , प्रबंधक कौन  पृथु जी। एक भूमण्डल ही नहीं, चौदह भुवन वाले ब्रह्माण्ड में जितने प्राणी, वृक्ष तक, ये सब स्थावर प्राणी, हमारे ऋग्वेद, महाभारत, मनुस्मृति तो कहते ही थे कि इन सबमें प्राण हैं, लेकिन देश के लाडले प्यारे

 

वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु जी ने यंत्रों के द्वारा भी सिद्ध कर दिया कि ये भी प्राणी हैं। तो इन वृक्ष आदि से लेकर के देवता, ऋषि पर्यन्त जिनका जो परम्पराप्राप्त निसर्गसिद्ध आहार है। किसी का आहार क्या है - वेद, ऋषियों का आहार क्या है - वेद। और देवताओं का आहार - अमृत। हमारा आपका आहार भी ज्ञान ही है सज्जनों। चावल, दाल, रोटी, सब्जी है क्या? हमारा, आपका , जीव का आहार क्या है? जो भी भोजन आदि करेंगे वह 5 रूपों में परिणत होगा - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। अंत में शब्दज्ञान, स्पर्शज्ञान, रूपज्ञान, रसज्ञान, गंधज्ञान।  हमारे आपके पास पहुंचेगा क्या?  पहुँचना है ज्ञान को ही, सूक्ष्म दृष्टि से हमने कहा। हमारा, आपका, जीव का भोग्य क्या है - ज्ञान।  इसका मतलब राजा पृथु ने क्या किया-  वृक्षों को खाद पानी देने की व्यवस्था की। यहाँ से लेकर वहाँ तक (परलोक तक)  जितने प्राणी हैं सबको यथायोग्य निसर्गसिद्ध परम्पराप्राप्त अन्न दिया। ये व्यवस्था का स्वरूप रहा।

 

अंत में,   सनातन धर्मी….. जैसे आप यहाँ की मुद्रा को अमेरिका भेजना चाहे तो क्या करेंगे? सिस्टम के द्वारा डॉलर के रूप में कन्वर्ट करना पड़ेगा या नहीं? इसी प्रकार से हमारे यहाँ व्यवस्था देखिए देवताओं के पोषण के लिए यज्ञ करते हैं या नहीं?  देवताओं का उससे पोषण होता है। पितरों के पोषण के लिए पिण्डोदक क्रिया की व्यवस्था है या नहीं? और जो हम तर्पण करते हैं उस तर्पण से - जल, स्थल, नभ सब तृप्त हों। पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, जितने स्थावर जङ्गम प्राणी हैं सब तृप्त हों। ये वैदिक विधा है। जैसे एक्सचेंज पद्धति है वैसे ही यह वैदिक विधा है-  हमारे यहाँ तो हर चेष्टा, हर मनुष्य की सनातनी की, हर प्राणी के पोषण में और प्राणी के उद्भव स्थान पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन के पोषण में सज्जनों में सम्मिलित है। तो सनातन व्यवस्था को याद करें।  भोजन का महत्व, आवास का महत्व, वस्त्र का महत्व, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव, त्योहार, रक्षा, सेवा, न्याय सबका महत्व लेकिन सबसे बड़ी बात क्या है? सब प्राणियों के हित में हमारे जीवन का उपयोग और विनियोग हो और अंत में – हमारी चाह का जो विषय सच्चिदानन्द तत्व है उसको प्राप्त करने का, मृत्यु, मूर्खता और दुःख पर विजय प्राप्त करने का प्रबंध हो – वो प्रबंध अध्यात्म के द्वारा हो सकता है।


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