महत्त्वपूर्ण वचनों का संग्रह <blockquote>
दर्शन, विज्ञान और व्यवहार तीनों में सामञ्जस्य साधकर सनातन सिद्धान्त को इस ढंग से निरूपित करें, ख्यापित करें कि पूरा विश्व उसको माने। आज वही वाद, तन्त्र टिक सकता है जो दर्शन, विज्ञान और व्यवहार में सामञ्जस्य साध सके।
मठ-मन्दिर सनातन वैदिक आर्य हिन्दुओं के दुर्ग हों। एक मठ, एक मन्दिर की सीमा निर्धारित कीजिये... कम से कम 2 किलोमीटर परिधि में, 10 किलोमीटर में या 50 किलोमीटर में जिसकी जितनी क्षमता हो, वहाँ मठ-मन्दिर के परिकर (पार्षद) होकर चारों ओर मठ-मन्दिर के पार्षद घूमें। और अपने क्षेत्र को सुबुद्ध, सुसंस्कृत, स्वावलम्बी बना दें। तब नास्तिकों की आस्था के केन्द्र भी मठ-मन्दिर बने रहेंगे। अगर मठ-मन्दिरों के माध्यम से शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवा, शुचिता, स्वच्छता, सुन्दरता, शील और स्नेह से सम्पन्न जीवन का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ तो अधिक समय तक मठ-मन्दिर टिक नहीं सकते। मठ-मन्दिर अपनी उपयोगिता सिद्ध करें। अगर गिने-चुने व्यक्तियों की मनौती मानने और आस्था के केन्द्र बनकर ही अगर मन्दिर रह गये तो भी मन्दिर के प्रति लोगों की आस्था नहीं रहेगी आजकल। मन्दिर को गिने-चुने व्यक्तियों की मनौती मानने और आजीविका के साधन बनाकर ही मत रखिये। शिक्षा, रक्षा, अर्थ और सेवा के प्रकल्प वहाँ से चलाइये तो ये मठ-मन्दिर नास्तिकों की आस्था के भी केन्द्र बनेंगे नहीं तो आस्तिकों की भी आस्था के केन्द्र बनकर अधिक समय तक नहीं रह सकते। इसलिये हर क्षेत्र में एक परिधि निर्धारित कीजिये, उस परिधि में शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवा, स्वच्छता आदि के प्रकल्प चलाइये।
कीर्तन खूब कीजिये लेकिन कीर्तन के नाम पर क्षात्र धर्म का विलोप न हो। अगर कीर्तन के नाम पर क्षात्र धर्म का विलोप हो जाता है तो कम्युनिज़्म पनप जाता है जैसे कि बङ्गाल कम्युनिस्टों के अधीन हो गया। अभी भी लगभग ऐसा ही है। और बुद्धिज़्म के नाम पर वर्णाश्रमोचित नियन्त्रण खो देने के कारण अहिंसा के नाम पर फिर कम्युनिज़्म छा जाता है। जैसे कि तिब्बत आज कम्युनिस्टों के अधीन है। कीर्तन के नाम पर तप और विद्या का विलोप न हो। कीर्तन भी होना चाहिये, तप भी होना चाहिये, विद्या भी होनी चाहिये, सङ्घ बल भी होना चाहिये।
यदि हम अपने जीवन की गति, मति, स्थिति भगवान् के प्रति निवेदित करें तो हमारा व्यवहार भी परमार्थ की सिद्धि में हेतु बन सकता है। नीति का प्रीति के साथ सामञ्जस्य हो, प्रीति का नीति के साथ सामञ्जस्य हो। स्वार्थ का परमार्थ के साथ सामञ्जस्य हो, परमार्थ का स्वार्थ के साथ सामञ्जस्य हो। स्वार्थ परमार्थ में हेतु हो जाये, नीति-प्रीति में सामञ्जस्य सध जाये, व्यवहार परमार्थ की सिद्धि के लिये हो जाये तो जीवन में कृतार्थता सम्भव है।
आप जीविका की उपेक्षा मत कीजिये परन्तु ध्यान रखिये जीविका जीवन के लिये हो, जीवन जीविका के लिये न हो , जीवन हो जीवनधन जगदीश्वर की प्राप्ति के लिये।
लोकतन्त्र के नाम पर उन्माद न छा जाये इसका ध्यान रखना आवश्यक है। शिक्षा, रक्षा, अर्थ और सेवा के प्रकल्प सन्तुलित रूप में बने रहें और भारत भारत के रूप में उद्भासित हो यह भी आवश्यक है। 'भा' का अर्थ होता है ज्ञान। 'रत' का अर्थ होता है निरत (संलग्न)। पूरे विश्व को विद्या और कला से मण्डित कर देना यह भारत का लक्षण है। व्यासपीठ भी अपनी मर्यादा में सीमित रह कर, व्यवस्थित रहकर अपने अस्तित्व को बनाये रखे, अपने आदर्श को बनाये रखे और शासनतन्त्र भी दिशाहीन न हो। दोनो में सैद्धान्तिक सामञ्जस्य हो।
ब्राह्मणों का क्या दायित्व है?
कालक्रम से विकृत ज्ञान-विज्ञान को विशुद्ध करना, विलुप्त ज्ञान-विज्ञान को तपोबल से उद्भासित करना तथा सूत्रात्मक ज्ञान-विज्ञान को विशद करना। व्यासपीठ में अगर विकृति हो तो उसका शोधन करना, व्यासपीठ को व्यासपीठ की मर्यादा में सन्निहित रखना। शासनतन्त्र में अगर विसङ्गति हो तो उसका शोधन करना तथा व्यासपीठ और शासनतन्त्र में सैद्धान्तिक सामञ्जस्य स्थापित करना।
दिशाहीन प्रचार तन्त्र, व्यापार तन्त्र और शासन तन्त्र से गठबन्धन करके जो सन्त बनते हैं, ख्यातिप्राप्त करते हैं, इन तीनों तन्त्रों के द्वारा या इनमें से किसी एक तन्त्र के द्वारा गिरा दिये जाते हैं।
जब तक सनातन विधा से शासनतन्त्र प्राप्त ना हो, तब तक अथक परिश्रम करने पर भी हम बीज की ही रक्षा कर सकते है, समग्र मानबिंदु की रक्षा नहीं कर सकते।
"शास्त्रीय मार्ग से जब जीवनयापन नहीं होता, शास्त्रीय मार्ग से जब समाज और राष्ट्र की संरचना नहीं होती, तब हर व्यक्ति असुर होने के लिए बाध्य होता है। शास्त्रीय मार्ग ही व्यक्ति को असुर होने से बचाता है।"
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